Friday, November 7, 2008

मैं ही

वो मैं ही तो था
जिसके चीथड़े बटोरकर
साफ कर रहे थे तुम जमीन

मेरे ही कटे पांव को
छापा था अखबार ने
और मैं ही उसे देखकर
कांप उठा था उस रोज सुबह

मेरा ही खून बहा था
सड़कों पर
और मेरा ही खून
चढ़ रहा था बोतलों से

Tuesday, November 4, 2008

गुवाहाटी की कविता


दफ्तर से देखा कि विस्फोट का धुंआ उठ रहा है और वह मेरे भीतर जमा हो रहा है।

कितने विस्फोट हुए
खबरची पूछ रहे थे
गिनती पूरी नहीं हुई थी
मेरे अंदर विस्फोट जारी थे

इतनी बार
मरा मैं
मौके पर और अस्पताल में
कि और
मरने की
ताकत नहीं बची।

Tuesday, October 28, 2008

दीपावली की उदासी


हर दूसरे पर्व की तरह आज दीपावली के दिन भी मन उदास हो गया। मैंने इसका कारण खोजने की कोशिश की लेकिन खोज नहीं पाया। क्या इसका कारण यह है कि सालों से एक ही तरह की चीज में अब कोई रस नहीं रह गया। जैसे अखबारों में इस अवसर पर निकलने वाले - दिए का संदेश, अंधरे पर प्रकाश की विजय - जैसी उन्हीं उन्हीं बातों में कोई दिसचस्ली नहीं जग पाती। अब पटाखों, मिठाइयों में कहाँ से दिलचस्पी पैदा करें।

Monday, September 22, 2008

बाल कविता


सिटी बस सिटी बस
इंडियन सिटी बस
देश का आईना है
इंडियन सिटी बस

खाली गाड़ी खाली गाड़ी
आइए छूटेगी अब
इसकी है खासियत
ठेलमठेल ठसमठस

कोई निकला दफ्तर को
स्कूल कोई जा रहा
घुटन होती, देर होती
प्यारी फिर भी सिटी बस
(पाठक इसे आगे बढाएँ)

Tuesday, September 16, 2008

गर्वीली घोषणा


आँखें हर एक सवारी के चेहरे को पढ़ते हुए यह जानने का प्रयत्न कर रही थीं कि कौन कहाँ उतरने वाली है - ताकि हमारी टांगों को भी थोड़ा आराम मिले। तब तक बगल में पीछे की ओर एक सवारी का ऊंचा स्वर सुनाई दिया। किराया देंगे जी - किराया देंगे जी। मैंने ध्यान से देखा - कंडक्टर किसी सवारी को जबरन उतार रहा था। वह चालीस की उम्र वाला (पचास का दिखाई देता था) आदमी किराया देने की दुहाई दे रहा था। और ध्यान देने पर समझ में आया कि वह आदमी आंखों से देख नहीं पाता था। कंडक्टर सोच रहा था कि यह मुफ्त में यात्रा करना चाहता है। लेकिन सगर्व किराया देने की घोषणा करने वाले उस नेत्रहीन ने कंडक्टर को नीचा दिखा दिया।

Friday, September 12, 2008

जान-पहचान


आज नया क्या था। बस खिड़की के बाहर दिखाई देने वाले बिग टीवी के नए होर्डिंग। वोडाफोन के आने की सूचना देने वाले नए विज्ञापन। लड़िकयों के कालेज के बाहर उनका जुलूस। वोट फार अमुक के नारे। नया खोजते-खोजते स्टेशन के पास का स्टापेज आ गया था। एक युवक चढ़ा। उसकी एक आँख पर पट्टी बँधी थी। कोई भयंकर चोट लगी होगी। सर का अधिकतर भाग पट्टी से ढका हुआ था। मेरे आगे जो व्यक्ति बैठा था वह एक अधेड़ मुसलमान था। उसका पहनावा उसके धर्म के बारे में कह रहा था। लंबी सफेद हो रही दाढ़ी तथा लूंगी। उस पट्टी बँधे युवक को देखते ही वह उठ खड़ा हुआ। उसे सीट देने के लिए। युवक के हाथ में भारी-भरकम बैग था। शायद कहीं बाहर से आया था। वह तुरंत उस सीट पर काबिज नहीं हो गया। उसने पूछा क्या आप यहीं उतरने वाले हैं। मुसलमान अधेड़ बोला, नहीं। तो फिर बैठिए। नहीं आप बैठिए। इस तरह उस अधेड़ ने उस युवक के लिए सीट छोड़ दी। थोड़ी ही देर में उस अधेड़ को भी फिर से सीट मिल गई। कितना अच्छा लगता है जब कोई किसी के लिए सीट छोड़ता है। अच्छा लगा कि हमारे यहाँ भी पहले आप-पहले आप चलता है। अजनबियों के बीच भी। विनोद कुमार शुक्ल की वो कविता याद आ गई - उसकी आँखों में दुख था, और मैं दुख को पहचानता था।

Sunday, September 7, 2008

हिंदी की छटाएँ

बस में दो पहाड़ी चढ़े थे। वे अपनी ही भाषा में बात कर रहे थे। स्वाभाविक है। लेकिन जब आप पहाड़ी प्रदेश की यात्रा करते हैं तो हिंदी की छटा देखकर मन पुलकित हो जाता है। कहाँ की हिंदी कहाँ आ गई। फिर भी हमारे हिंदी वाले संतुष्ट नहीं होते। वे अपनी तुलना अंग्रेजी से करते होंगे। शिलांग में एक खासी युवक रेस्तरां में कुछ खा रहा था। एक दक्षिण भारतीय ने सोचा कि वह जो खा रहा है वह चीज मैं लूँ या नहीं। पता नहीं कैसी हो। उसने पूछा - भाई कैसा-कैसा। उसने कहा - हाँ खासिया-खासिया। यानी हाँ मैं खासिया (यानी खासी) हूँ।

एक दिन बस में मेरे साथ खासी मजदूर जा रहा था। बाहर एक स्थान पर दिखाकर बोला - बाबू, कल हम यहाँ पर गिरेगा। मुझे अचरज हुआ। यह कल यहाँ गिरेगा, इसे आज ही कैसे पता चल गया। पूछा - कैसे गिरेगा।
-साइकिल से गिरेगा, बाबू।
-साइकिल से गिरेगा? कैसे मालूम?
- कैशा बात करता। हाम गिरेगा, और हामको मालूम कैशे नहीं होगा। बहोत चोट लगता बाबू।
मैं अब तक समझ गया कि यह कल उस जगह साइकिल से गिर पड़ा था।

अरुणाचल में हिंदी के चित्र और भी रमणीय हैं। एक डाक्टर को खोजने निकला था। पहाड़ी शहर में स्थान खोजने में मुझे हमेशा दिक्कत होती है। मैंने साथ में एक स्थानीय मित्र को ले लिया। स्थानीय मित्र ने इस तरह मेरी मदद की-

ऐ भाई, इधर एक डाक्टर बैठता, आपको मालूम?
- डाक्टर, इधर में तो कोई डाक्टर नहीं बैठता। अच्छा-अच्छा पहले एकठो डाक्टर बैठता था, आजकल तो वो हियां नहीं बैठता। उधर नीचे का तरफ खबर करो।

मुझे संदेह हुआ कि मैं किसी डाक्टर को खोज रहा हूँ या किसी खोमचे वाले को।

बस अपने स्टाप पर रुके बिना चल दी। दोनों पहाड़ी युवक चिल्ला उठे। अय रुको-रुको, हम यहां गिरेगा।

मेरे सहयात्रियों का गंतव्य आ गया था। वे गिरना चाहते थे।

Saturday, September 6, 2008

उसकी नींद



आशा ने सुबह शिकायत की थी कि रात को मेरे कुछ कहने के बाद उसकी नींद काफी समय तक उचटी रही। आफिस आते समय बस की खिड़की से देखा होटल राजमहल के बाहर मिट्टी पर एक औरत मजे से सो रही है। वह शायद पुराने कपड़े बेचने वाली औरत रही होगी। पुराने कपड़े बेचने वाली औरतें अमूमन उसी जगह पर बैठती हैं। औरत के सर के नीचे एक पौटली भी थी। उसका वह तकिए की तरह इस्तेमाल कर रही थी। होटल राजमहल के पास सड़क काफी व्यस्त रहती है। अक्सर यहां ट्रैफिक जाम के कारण ज्यादा ही चिल्ल-पौं रहती है। ऐसे में वह औरत मजे से सो रही थी। शायद उसकी ग्राहकी का समय नहीं हुआ होगा। शायद उसके पति ने रात को उसके साथ मारपीट की होगी जिसके कारण वह सो नहीं पाई होगी। यह भी हो सकता है कि चार या पाँच बच्चों को जगाने और उनके रोटी-पानी का जुगाड़ करके वह बाजार आई हो। यह सब करने के लिए उसे अल्लसुबह जग जाना पड़ता होगा। हो सकता है रात को बारिश में छत टपकती होगी। बारिश होते ही वह छत के हर छेद के नीचे बर्तन लगाने में व्यस्त हो जाती होगी। घर में हर समय अलर्ट की मुद्रा में रहने वाली औरत के लिए शायद वह सड़क किनारे की कच्ची मिट्टी सबसे शांत जगह थी। यहां उसके बच्चे परेशान करने के लिए आने वाले नहीं हैं। न ही उसका पति बेवक्त आकर भात या चाय बना देने के लिए कहने वाला है। किशनगंज स्टेशन पर एक बार रात को तीन बजे उतरना पड़ा था। मेरे सूटकेस में एक उपन्यास था। मैंने बैंच पर बैठकर उसे पढ़ना शुरू किया। लेकिन पांच ही मिनट में मच्छर परेशान करने लगे। देखा पास ही लेटा एक बच्चा, जो या तो सामान ढोता होगा या भीख मांगता होगा - गहरी नींद में सोया था। उसके चारों तरफ मच्छर भिन् भिन् कर रहे थे। अपने पूरे दम के साथ। मैंने उपन्यास बंद कर दिया था। वह लड़का वैसे ही सोया था। सुबह होने से पहले उठने वाला नहीं लगा।

Thursday, September 4, 2008

गालियाँ

आज कोई खाली सीट नहीं मिली। मेरे पीछे खड़े एक यात्री का मोबाइल बजा। उसने फोन पर ही गालियाँ बकनी शुरू कर दी। केला, चुदीर भाई, तुम्हें दिखा कर तो आया था...कहकर। शायद उसका कोई अधीनस्थ होगा। मेरी नजरें एक महिला पर थीं। खुलेआम इस तरह गंदी गालियों को महिलाएँ कैसे बर्दास्त कर पाती होंगी। महिला के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। शायद इसका अभ्यास हो जाता होगा। फोन करने वाला कोई लफंगा किस्म का ही छोकरा था। यह कितनी अच्छी बात है कि जो लफंगे मवाली होते हैं, उनकी वाणी भी उनके कर्मों जैसी ही हो जाती है। यानी वे मनसा, वाचा, कर्मणा एक जैसे होते हैं। इससे हमें अच्छे बुरे व्यक्ति को पहचानने में सहूलियत होती है। वह आदमी फोन बंद कर कंडक्टर से हँस-हँसकर बातें करने लगा। क्या मैंने उसकी वेशभूषा के आधार पर उसे पहचानने में भूल कर दी। अक्सर आदमी की वेशभूषा से आप उसके बारे में मोटा-मोटा अंदाजा तो लगा ही लेते हैं। बहुत कम ही होता है कि इसमें गलती हो।

Thursday, August 21, 2008

अफसरी

वह सीनियर सिटीजन की श्रेणी का व्यक्ति था। मैंने तय कर लिया कि उसके बगल की सीट खाली हुई तो मैं उसे ही बैठने के लिए कहूँगा। वह शायद कोई अफसर रहा होगा। रिटायर्ड अफसर। नख-दंत हीन अफसर। कार्यरत अफसर कभी सिटी बसों में यात्रा नहीं करते। उनके पास सरकारी या कंपनी की गाड़ी होती है। आम तौर पर अफसर अपने नौकरी काल में ही अपने लिए गाड़ी की व्यवस्था कर लेते हैं। कुछ नौकरियां इसकी मोहलत और सुविधा नहीं देती। ऐसे अफसर बाद में सिटी बसों में यात्रा करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। उनकी मजबूरी उनके चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती है। जिस तरह उनकी अफसरी की पपड़ियां उनके चेहरे पर साफ चिपकी रहती हैं उसी तरह मजबूरी की परतें भी चिपकी रहती हैं। जब एक जगह कंडक्टर ने आवाज लगाई कि कोई उतरने वाला नहीं है चलो-चलो, तो उन सज्जन ने कहा है- है। यानी कोई सवारी उतरने वाली है। ऐसे कहकर उन्होंने मेरे अनुमान को गलत साबित कर दिया। हो सकता है वे सज्जन रिटायर्ड अफसर न हों। हमने देखा है कि कई अवकाशप्राप्त अफसर बाद में गाड़ी न होने की वजह से कहीं आना-जाना ही छोड़ देते हैं। उन्हें कभी यह खयाल नहीं आता कि लोग बिना गाड़ी के कैसे कहीं आ-जा लेते हैं।

Monday, August 18, 2008

बहाने

सिटी बस के लिए निकल रहा था कि रास्ते में मित्र परमानंद राजवंशी मिल गए। प्रोफेसर हैं। कहा, कहां जा रहे हैं टहलते-टहलते। मैंने कहा बस सड़क से आटो ले लूंगा। मैंने नहीं कहा कि सिटी बस से आफिस जा रहा हूँ। इस शहर में केवल एक खास श्रेणी के लोग ही सिटी बस से यात्रा करते हैं। आज काफी भीड़ है। कई सिटी बसों को छोड़ दिया। फिर दौड़कर एक वोल्वो पकड़ी। यह सरकारी बस है। बहुत ही आरामदायक। इसमें चढ़ने में बहुत ही आसानी होती है। लेकिन यह गलत बस थी। मैंने भाड़ा चुकाया और थोड़ी ही दूर पर उतर गया। वहाँ से सही बस में बैठा। सीट के लिए युद्ध सा करते शर्म भी आती है। इसलिए जिस युवक के साथ 'युद्ध' किया था फिर सर उठाकर उसे देखा तक नहीं। मानों मैं सिटीबस की भीड़ से काफी परेशान हूँ। ग्यारह बजे के इस समय तक लोगों के शरीर से निकले पसीने से पूरी बस भर गई है। लेकिन इसका अनुभव जरूरी है। वरना आम लोगों से संपर्क ही क्या रह जाएगा।

Saturday, May 17, 2008

नौकरी यात्रा

मैं उस पर नजरें गड़ाए था और सीट खाली हो चुकने के बावजूद मुझे पता नही नहीं चला था। मुझ जैसे अनुभवी सिटी बस यात्री के लिए यह कैसे मुमकिन हुआ। खैर देर ज्यादा नहीं हुई थी, मैं बैठने को उद्यत हुआ, कि वह लड़का भी बैठने को आगे बढ़ा। सीट तो मुझे ही मिलेगी, फिर भी सभ्यता की खातिर मैंने पूछ लिया - आप बैठेंगे। उसने कहा - बैठिये, बैठिये। वह दरवाजे का हैंडल पकड़े खड़ा ही रहा। वाह कैसा सभ्य लड़का है। उसके साथ और भी दो लोग थे। उसे भी थोड़ी देर में सीट मिल गई। वह चुपचाप था। डरा हुआ सा। काफी देर के बाद उसने अपने अभिभावक जैसे उम्र में बड़े साथी (शायद बड़ा भाई) से पूछा - उसका फोटोस्टेट तो नहीं लाए। गला सूखा हुआ था। शायद प्राइवेट में इन सबकी जरूरत नहीं होती। उसे सिटी बस की सीट से मतलब नहीं। उसके सामने बड़ा लक्ष्य है। नौकरी पाना है। बड़े भाई ने कमीज की जेब में दस्तावेजों को गोल कर खोंस रखा था। सस्ते कैनवैस की शू फैलाए वह आराम से बैठा। मोबाइल पर कसी नवो दा का फोन आता है। कहां तक पहुंचे।
अरे गाड़ी को लेकर प्राब्लेम हो गई। सरकारी अस्पताल तक पहुंचा हूं। बस पहुंच जाऊगा। काफी मुलामियत से उसने कहा।
कोई बात नहीं मैं इन्हें रोके हुए हूं। आ जाओ।
साथ वाला इस फोन को लेकर काफी बातें करता है। किसी प्रभावी शुभचिंतक ने उन्हें नौकरी पर लगाने का बीड़ा उठाया है शायद।
अरे सीधे पूछ दिया कहां तक पहुंचे। मैं तो शुरू में समझ में ही नहीं पाया कौन है। मैं नवो बोल रहा हूं। दोनों हंसते हैं। नवो पर दोनों को पूरा विश्वास है। ग्रामीण खुले आसमान के दो स्वतंत्र पंक्षी शहर के पिंजरे में बंद होने के लिए बेताब थे।

Thursday, May 15, 2008

तो शुरू करें यात्रा

आज से एक भारतीय शहर की सिटी बस की यात्रा पर हम आपको ले चलेंगे। रेल गाड़ी की तरह ही सिटी बस की यात्रा में भी आपको आज के भारतीय जीवन को जानने का अवसर मिलेगा। आप भी अपने शहर के अनुभवों के साथ इस ब्लाग को और भारतीय अनुभव संसार को समृद्ध बनाएँ।