Monday, September 22, 2008

बाल कविता


सिटी बस सिटी बस
इंडियन सिटी बस
देश का आईना है
इंडियन सिटी बस

खाली गाड़ी खाली गाड़ी
आइए छूटेगी अब
इसकी है खासियत
ठेलमठेल ठसमठस

कोई निकला दफ्तर को
स्कूल कोई जा रहा
घुटन होती, देर होती
प्यारी फिर भी सिटी बस
(पाठक इसे आगे बढाएँ)

Tuesday, September 16, 2008

गर्वीली घोषणा


आँखें हर एक सवारी के चेहरे को पढ़ते हुए यह जानने का प्रयत्न कर रही थीं कि कौन कहाँ उतरने वाली है - ताकि हमारी टांगों को भी थोड़ा आराम मिले। तब तक बगल में पीछे की ओर एक सवारी का ऊंचा स्वर सुनाई दिया। किराया देंगे जी - किराया देंगे जी। मैंने ध्यान से देखा - कंडक्टर किसी सवारी को जबरन उतार रहा था। वह चालीस की उम्र वाला (पचास का दिखाई देता था) आदमी किराया देने की दुहाई दे रहा था। और ध्यान देने पर समझ में आया कि वह आदमी आंखों से देख नहीं पाता था। कंडक्टर सोच रहा था कि यह मुफ्त में यात्रा करना चाहता है। लेकिन सगर्व किराया देने की घोषणा करने वाले उस नेत्रहीन ने कंडक्टर को नीचा दिखा दिया।

Friday, September 12, 2008

जान-पहचान


आज नया क्या था। बस खिड़की के बाहर दिखाई देने वाले बिग टीवी के नए होर्डिंग। वोडाफोन के आने की सूचना देने वाले नए विज्ञापन। लड़िकयों के कालेज के बाहर उनका जुलूस। वोट फार अमुक के नारे। नया खोजते-खोजते स्टेशन के पास का स्टापेज आ गया था। एक युवक चढ़ा। उसकी एक आँख पर पट्टी बँधी थी। कोई भयंकर चोट लगी होगी। सर का अधिकतर भाग पट्टी से ढका हुआ था। मेरे आगे जो व्यक्ति बैठा था वह एक अधेड़ मुसलमान था। उसका पहनावा उसके धर्म के बारे में कह रहा था। लंबी सफेद हो रही दाढ़ी तथा लूंगी। उस पट्टी बँधे युवक को देखते ही वह उठ खड़ा हुआ। उसे सीट देने के लिए। युवक के हाथ में भारी-भरकम बैग था। शायद कहीं बाहर से आया था। वह तुरंत उस सीट पर काबिज नहीं हो गया। उसने पूछा क्या आप यहीं उतरने वाले हैं। मुसलमान अधेड़ बोला, नहीं। तो फिर बैठिए। नहीं आप बैठिए। इस तरह उस अधेड़ ने उस युवक के लिए सीट छोड़ दी। थोड़ी ही देर में उस अधेड़ को भी फिर से सीट मिल गई। कितना अच्छा लगता है जब कोई किसी के लिए सीट छोड़ता है। अच्छा लगा कि हमारे यहाँ भी पहले आप-पहले आप चलता है। अजनबियों के बीच भी। विनोद कुमार शुक्ल की वो कविता याद आ गई - उसकी आँखों में दुख था, और मैं दुख को पहचानता था।

Sunday, September 7, 2008

हिंदी की छटाएँ

बस में दो पहाड़ी चढ़े थे। वे अपनी ही भाषा में बात कर रहे थे। स्वाभाविक है। लेकिन जब आप पहाड़ी प्रदेश की यात्रा करते हैं तो हिंदी की छटा देखकर मन पुलकित हो जाता है। कहाँ की हिंदी कहाँ आ गई। फिर भी हमारे हिंदी वाले संतुष्ट नहीं होते। वे अपनी तुलना अंग्रेजी से करते होंगे। शिलांग में एक खासी युवक रेस्तरां में कुछ खा रहा था। एक दक्षिण भारतीय ने सोचा कि वह जो खा रहा है वह चीज मैं लूँ या नहीं। पता नहीं कैसी हो। उसने पूछा - भाई कैसा-कैसा। उसने कहा - हाँ खासिया-खासिया। यानी हाँ मैं खासिया (यानी खासी) हूँ।

एक दिन बस में मेरे साथ खासी मजदूर जा रहा था। बाहर एक स्थान पर दिखाकर बोला - बाबू, कल हम यहाँ पर गिरेगा। मुझे अचरज हुआ। यह कल यहाँ गिरेगा, इसे आज ही कैसे पता चल गया। पूछा - कैसे गिरेगा।
-साइकिल से गिरेगा, बाबू।
-साइकिल से गिरेगा? कैसे मालूम?
- कैशा बात करता। हाम गिरेगा, और हामको मालूम कैशे नहीं होगा। बहोत चोट लगता बाबू।
मैं अब तक समझ गया कि यह कल उस जगह साइकिल से गिर पड़ा था।

अरुणाचल में हिंदी के चित्र और भी रमणीय हैं। एक डाक्टर को खोजने निकला था। पहाड़ी शहर में स्थान खोजने में मुझे हमेशा दिक्कत होती है। मैंने साथ में एक स्थानीय मित्र को ले लिया। स्थानीय मित्र ने इस तरह मेरी मदद की-

ऐ भाई, इधर एक डाक्टर बैठता, आपको मालूम?
- डाक्टर, इधर में तो कोई डाक्टर नहीं बैठता। अच्छा-अच्छा पहले एकठो डाक्टर बैठता था, आजकल तो वो हियां नहीं बैठता। उधर नीचे का तरफ खबर करो।

मुझे संदेह हुआ कि मैं किसी डाक्टर को खोज रहा हूँ या किसी खोमचे वाले को।

बस अपने स्टाप पर रुके बिना चल दी। दोनों पहाड़ी युवक चिल्ला उठे। अय रुको-रुको, हम यहां गिरेगा।

मेरे सहयात्रियों का गंतव्य आ गया था। वे गिरना चाहते थे।

Saturday, September 6, 2008

उसकी नींद



आशा ने सुबह शिकायत की थी कि रात को मेरे कुछ कहने के बाद उसकी नींद काफी समय तक उचटी रही। आफिस आते समय बस की खिड़की से देखा होटल राजमहल के बाहर मिट्टी पर एक औरत मजे से सो रही है। वह शायद पुराने कपड़े बेचने वाली औरत रही होगी। पुराने कपड़े बेचने वाली औरतें अमूमन उसी जगह पर बैठती हैं। औरत के सर के नीचे एक पौटली भी थी। उसका वह तकिए की तरह इस्तेमाल कर रही थी। होटल राजमहल के पास सड़क काफी व्यस्त रहती है। अक्सर यहां ट्रैफिक जाम के कारण ज्यादा ही चिल्ल-पौं रहती है। ऐसे में वह औरत मजे से सो रही थी। शायद उसकी ग्राहकी का समय नहीं हुआ होगा। शायद उसके पति ने रात को उसके साथ मारपीट की होगी जिसके कारण वह सो नहीं पाई होगी। यह भी हो सकता है कि चार या पाँच बच्चों को जगाने और उनके रोटी-पानी का जुगाड़ करके वह बाजार आई हो। यह सब करने के लिए उसे अल्लसुबह जग जाना पड़ता होगा। हो सकता है रात को बारिश में छत टपकती होगी। बारिश होते ही वह छत के हर छेद के नीचे बर्तन लगाने में व्यस्त हो जाती होगी। घर में हर समय अलर्ट की मुद्रा में रहने वाली औरत के लिए शायद वह सड़क किनारे की कच्ची मिट्टी सबसे शांत जगह थी। यहां उसके बच्चे परेशान करने के लिए आने वाले नहीं हैं। न ही उसका पति बेवक्त आकर भात या चाय बना देने के लिए कहने वाला है। किशनगंज स्टेशन पर एक बार रात को तीन बजे उतरना पड़ा था। मेरे सूटकेस में एक उपन्यास था। मैंने बैंच पर बैठकर उसे पढ़ना शुरू किया। लेकिन पांच ही मिनट में मच्छर परेशान करने लगे। देखा पास ही लेटा एक बच्चा, जो या तो सामान ढोता होगा या भीख मांगता होगा - गहरी नींद में सोया था। उसके चारों तरफ मच्छर भिन् भिन् कर रहे थे। अपने पूरे दम के साथ। मैंने उपन्यास बंद कर दिया था। वह लड़का वैसे ही सोया था। सुबह होने से पहले उठने वाला नहीं लगा।

Thursday, September 4, 2008

गालियाँ

आज कोई खाली सीट नहीं मिली। मेरे पीछे खड़े एक यात्री का मोबाइल बजा। उसने फोन पर ही गालियाँ बकनी शुरू कर दी। केला, चुदीर भाई, तुम्हें दिखा कर तो आया था...कहकर। शायद उसका कोई अधीनस्थ होगा। मेरी नजरें एक महिला पर थीं। खुलेआम इस तरह गंदी गालियों को महिलाएँ कैसे बर्दास्त कर पाती होंगी। महिला के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। शायद इसका अभ्यास हो जाता होगा। फोन करने वाला कोई लफंगा किस्म का ही छोकरा था। यह कितनी अच्छी बात है कि जो लफंगे मवाली होते हैं, उनकी वाणी भी उनके कर्मों जैसी ही हो जाती है। यानी वे मनसा, वाचा, कर्मणा एक जैसे होते हैं। इससे हमें अच्छे बुरे व्यक्ति को पहचानने में सहूलियत होती है। वह आदमी फोन बंद कर कंडक्टर से हँस-हँसकर बातें करने लगा। क्या मैंने उसकी वेशभूषा के आधार पर उसे पहचानने में भूल कर दी। अक्सर आदमी की वेशभूषा से आप उसके बारे में मोटा-मोटा अंदाजा तो लगा ही लेते हैं। बहुत कम ही होता है कि इसमें गलती हो।