Friday, September 12, 2008
जान-पहचान
आज नया क्या था। बस खिड़की के बाहर दिखाई देने वाले बिग टीवी के नए होर्डिंग। वोडाफोन के आने की सूचना देने वाले नए विज्ञापन। लड़िकयों के कालेज के बाहर उनका जुलूस। वोट फार अमुक के नारे। नया खोजते-खोजते स्टेशन के पास का स्टापेज आ गया था। एक युवक चढ़ा। उसकी एक आँख पर पट्टी बँधी थी। कोई भयंकर चोट लगी होगी। सर का अधिकतर भाग पट्टी से ढका हुआ था। मेरे आगे जो व्यक्ति बैठा था वह एक अधेड़ मुसलमान था। उसका पहनावा उसके धर्म के बारे में कह रहा था। लंबी सफेद हो रही दाढ़ी तथा लूंगी। उस पट्टी बँधे युवक को देखते ही वह उठ खड़ा हुआ। उसे सीट देने के लिए। युवक के हाथ में भारी-भरकम बैग था। शायद कहीं बाहर से आया था। वह तुरंत उस सीट पर काबिज नहीं हो गया। उसने पूछा क्या आप यहीं उतरने वाले हैं। मुसलमान अधेड़ बोला, नहीं। तो फिर बैठिए। नहीं आप बैठिए। इस तरह उस अधेड़ ने उस युवक के लिए सीट छोड़ दी। थोड़ी ही देर में उस अधेड़ को भी फिर से सीट मिल गई। कितना अच्छा लगता है जब कोई किसी के लिए सीट छोड़ता है। अच्छा लगा कि हमारे यहाँ भी पहले आप-पहले आप चलता है। अजनबियों के बीच भी। विनोद कुमार शुक्ल की वो कविता याद आ गई - उसकी आँखों में दुख था, और मैं दुख को पहचानता था।
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