Thursday, September 4, 2008

गालियाँ

आज कोई खाली सीट नहीं मिली। मेरे पीछे खड़े एक यात्री का मोबाइल बजा। उसने फोन पर ही गालियाँ बकनी शुरू कर दी। केला, चुदीर भाई, तुम्हें दिखा कर तो आया था...कहकर। शायद उसका कोई अधीनस्थ होगा। मेरी नजरें एक महिला पर थीं। खुलेआम इस तरह गंदी गालियों को महिलाएँ कैसे बर्दास्त कर पाती होंगी। महिला के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। शायद इसका अभ्यास हो जाता होगा। फोन करने वाला कोई लफंगा किस्म का ही छोकरा था। यह कितनी अच्छी बात है कि जो लफंगे मवाली होते हैं, उनकी वाणी भी उनके कर्मों जैसी ही हो जाती है। यानी वे मनसा, वाचा, कर्मणा एक जैसे होते हैं। इससे हमें अच्छे बुरे व्यक्ति को पहचानने में सहूलियत होती है। वह आदमी फोन बंद कर कंडक्टर से हँस-हँसकर बातें करने लगा। क्या मैंने उसकी वेशभूषा के आधार पर उसे पहचानने में भूल कर दी। अक्सर आदमी की वेशभूषा से आप उसके बारे में मोटा-मोटा अंदाजा तो लगा ही लेते हैं। बहुत कम ही होता है कि इसमें गलती हो।

1 comment:

मनीषा भल्ला said...

सही कह रहे हैं..ज्यादातर औरतें गालियां सुन लेती हैं..पता नहीं क्यों..