और क्या चाहिए?
मैगजी..न
मैगजीन कहने से नहीं होगा..
फे - फैमिना ....वीक...
फैमिना है क्या जी?
वह एक दुबला-पतला लड़का था। नई स्पोर्टिंग पहने था। शायद कल-परसों ही खरीदी होगी। पूजा की खरीदारी में अस्त-व्यस्त। साथ में सलवार-सूट पहले पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे अपनी माप से बड़े पैंट पहने हुए। शायद अभी कक्षा एक तक भी नहीं पहुँचे हों। पत्नी सूची देखकर बता रही थी, क्या खरीदना बाकी रह गया। लड़के की वेशभूषा बता रही थी शायद किसी सरकारी दफ्तर में चपरासी होगा, किसी के यहां ड्राइवर होगा, या सरकारी नौकरी की आस में किसी बड़े सरकारी अधिकारी के यहाँ काम कर रहा होगा। बच्चे लगता है किसी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहे हैं।
दुकानदार ने फैमिना सामने रख दी। पारदर्शी कागज में पैक।
इसे खोलकर देख सकते हैं? दुकानदार के हां कहने पर उसने उसे सावधानी से खोला। पत्नी ने कहा देख लो भीतर तस्वीरें हैं या नहीं। आमुख पर हरी आँखों वाली अभिनेत्री मुस्कुरा रही थी। पति के पास उसकी ओर देखने का वक्त नहीं था। बच्चों की चीज है, एक बार बच्चों को दिखा लेना ठीक रहेगा। उसने बच्चों को अंदर के पृष्ठ दिखाए। देख लो, ठीक है न?
बच्चे - देखें - देखें यह क्या है...
पिता - यह सब साड़ियाँ हैं, बाद में देखना। दुकानदार से पूछा- ठीक है न मैग..मैगजीन।
दुकानदार ने हाँ में सिर हिलाया। उसके लिए ग्राहक भगवान था।
चलिए पैक कर दीजिए। हरी आँखों वाली अभिनेत्री फिर से पारदर्शी कागज में पैक हो गई, पचास रुपयों के भुगतान के बाद लड़के के झोले में चली गई।
पत्नी - अच्छा यही है क्या मैगजीन? इसे ही मैगजीन कहते हैं!
हाँ तो। बच्चों की रोज-रोज की नई फरमाइशों से परेशान पति बोला।
आज विशाल भारतीय मध्य वर्ग में एक नया परिवार शामिल हो गया।
फेमिना के पृष्ठों की कुछ तस्वीरें बच्चों के काम आएंगी और आमुख की ऐश्वर्या राय पिता के। दोनों के लिए यह बिल्कुल नया अनुभव होगा।
Diary of a Writer
This is a literary blog about the lively experience of an Indian journalist.
Sunday, October 10, 2010
Sunday, September 6, 2009
कहाँ से शुरू करूँ
लंबा व्यवधान पड़ गया। ब्लॉग भी क्या जुनून की तरह है? केवल जुनूनी होने से कैसे काम चलेगा। क्या कारण होते हैं जब लिखना बिल्कुल रुक जाता है? आंतरिक सूखा पड़ता होगा या फिर आती होगी कोई आंतरिक आर्थिक मंदी।
इन दिनों सीटी बस से यात्रा कम कर दी। अभी-अभी दस किलोमीटर तक धूल और धुआँ खाकर आ रहा हूँ। सीटी बस में कुछ गुण हैं और कुछ अवगुण, उसी तरह स्कूटर के अपने गुण-अवगुण हैं।
हिंदी को लेकर असम में एक वातावरण बनाया जा रहा है। आखिर यह किसका दोष है। शायद ज्यादा मीडिया होने का यह खामियाजा समाज को भुगतना पड़ता है। याद आते हैं वे दिन जब प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का जहाज ऊपरी असम में किसी गांव में गिर पड़ा था और हमें दूसरे दिन अखबार से पता चला। आज का दिन होता तो क्या होता? चैनल वालों को दो दिनों का काम मिल जाता। मीडिया के प्रति एक अंदरूनी वितृष्णा क्यों जन्म ले रही है?
Friday, November 7, 2008
Tuesday, November 4, 2008
गुवाहाटी की कविता
Tuesday, October 28, 2008
दीपावली की उदासी

हर दूसरे पर्व की तरह आज दीपावली के दिन भी मन उदास हो गया। मैंने इसका कारण खोजने की कोशिश की लेकिन खोज नहीं पाया। क्या इसका कारण यह है कि सालों से एक ही तरह की चीज में अब कोई रस नहीं रह गया। जैसे अखबारों में इस अवसर पर निकलने वाले - दिए का संदेश, अंधरे पर प्रकाश की विजय - जैसी उन्हीं उन्हीं बातों में कोई दिसचस्ली नहीं जग पाती। अब पटाखों, मिठाइयों में कहाँ से दिलचस्पी पैदा करें।
Monday, September 22, 2008
बाल कविता
Tuesday, September 16, 2008
गर्वीली घोषणा
आँखें हर एक सवारी के चेहरे को पढ़ते हुए यह जानने का प्रयत्न कर रही थीं कि कौन कहाँ उतरने वाली है - ताकि हमारी टांगों को भी थोड़ा आराम मिले। तब तक बगल में पीछे की ओर एक सवारी का ऊंचा स्वर सुनाई दिया। किराया देंगे जी - किराया देंगे जी। मैंने ध्यान से देखा - कंडक्टर किसी सवारी को जबरन उतार रहा था। वह चालीस की उम्र वाला (पचास का दिखाई देता था) आदमी किराया देने की दुहाई दे रहा था। और ध्यान देने पर समझ में आया कि वह आदमी आंखों से देख नहीं पाता था। कंडक्टर सोच रहा था कि यह मुफ्त में यात्रा करना चाहता है। लेकिन सगर्व किराया देने की घोषणा करने वाले उस नेत्रहीन ने कंडक्टर को नीचा दिखा दिया।
Subscribe to:
Posts (Atom)